बच्चे
खेलना चाहते हैं बच्चे
मिटटी पत्त्थर और पानी से
कपड़े गंदे हो जाने के भय से
हमने थमाए कृत्रिम खिलौने
बच्चे दौड़ना चाहते हैं
ताज़ा हरी घास पर
सूंघना चाहते हैं ताज़ा फूलों की सुगंध
कलाबाजियां खाना चाहते हैं बर्फ पर
उन्हें कमरों में धकेल दिया गया
असभ्य हो जाने के भय से
बच्चे चाहते हैं
रोना और हँसना खुलकर
पूछना चाहते हैं तारों का रहस्य
तुम्हारे खीझने पर चिल्लाना
गुस्सा होना भी चाहते हैं
बच्चे मगर डांट से वे सहमे रहे
छोटे बच्चे
माँ को सताना चाहते हैं
मचाना चाहते हैं ऊधम
घर-घर खेलना चाहते दिन भर
मगर भारी बस्ते लाद कर
उन्हें स्कूल भेजा गया
ऐसा ही समय रहा होगा
ठीक ऐसा ही समय रहा होगा
जब किसी ने अपने मित्र से
किया होगा
पहली बार विश्वासघात
स्त्रियाँ शालीनता भूल दौड़ पड़ी होंगी निर्वस्त्र
बाजारों की तरफ़
तरसे होंगे बुजुर्ग अपनी औलादों की सेवा को
आकाश में ऐसे ही समय सुराख़ हो गया होगा
बरसा होगा
मगर बूंदों में नहीं
सब जगह भी नहीं
कुछेक को ही मिला होगा
गला तर रखने को पानी
ज़हरीली हो गई होगी हवा
सभागार सुलग उठे होंगे
शवों की कतारों के बावजूद
शहर झूमते होंगे मदमस्त
बिंध जाती होगी आदमी की छाती
जानवर भय से थरथराते होंगे
राक्षस देवताओं पर टूट पड़े होंगे
ऐसा ही समय रहा होगा जब
समय ने स्वयं आ कर
बचाया होगा आदमी को।
विषय
कई मंजिला भवन के भीतर
एक साफ़ बड़े कमरे में
हीटर सेंकते लिख रहे होंगे आप
भूख के बारे में
जबकि आप बदहजमी का शिकार हैं
आप कल्पना करतें हैं एक झोंपडी
उसमें पति-पत्नी और
पाँच-छ: बच्चों की
जिनके पास खाने को कुछ नहीं
उसी समय आपके किचन में
बजती है प्रेशर कूकर की सीटी
देहरादून की भीनी खुशबू
आपका ख्याल तहस-नहस कर देती है
आप कमरे से बहार बालकनी में आ जाते हैं
और दूर-दूर तक नज़र आते हैं ऊचे भवन
कहीं कोई भूखा नहीं दिखाई देता
वापिस अपने टेबल पर आकर
फाड़ देते हैं कविता का कागज़
अब आप एक नया विषय सोच रहे हैं
शायद! बदहजमी कैसे दूर हो।